तुम्हारे जाने की घड़ी बहुत सख्त घड़ी होती है – ये तुम कहा करती थी. याद है न कैसे गुलज़ार साहब की इस नज़्म को पढ़ते वक़्त तुम्हारी आँखें भर आई थी? वो दिसंबर का ही एक दिन था. दिसंबर की वो सुबह तो याद होगी न तुम्हें? जब तुम मेरे शहर में कुछ दिन बिता कर वापस अपने शहर जा रही थी. वे दिन हमारे लिए संघर्ष, परेशानियों और उलझनों से भरे दिन थे. तुम इतनी ज्यादा परेशान मुझे पहले कभी नहीं दिखी थी.
तुम्हारा मन बहुत ही विचलित हो गया था. तरह तरह के डर और आशंकाओं ने तुम्हें घेर रखा था. तुम्हें मैं हर बार बहुत ही आसानी से संभाल लेता था, लेकिन वे कुछ ऐसे दिन थे कि मैं सच में क्लूलेस था, कि तुम्हें कैसे समझाऊं मैं? किस तरह तुम्हें संभालूं मैं? आज जब सोचता हूँ उन दिनों के बारे में तो मुझे लगता है वे हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन थें. उन अनचाही परस्थिथियों का आना एक तरह से अच्छा था. हमारे रिश्ते और विश्वास को एक नयी मजबूती मिली थी.
जिस दिन तुम्हें जाना था, उसके एक दिन पहले शाम में मैंने तुमसे वादा किया था, कि चाहे कुछ भी हो जाए, कैसे भी हालात हों, मैं तुम्हे सी-ऑफ़ करने स्टेशन जरूर आऊंगा. वो दिसंबर की सुबह थी. तुम्हारी ट्रेन सुबह साढ़े छः बजे थी. मैं साढ़े पाँच बजे ही स्टेशन पहुँच गया था. कड़कती ठण्ड तो नहीं थी, लेकिन फिर भी सुबह कैब से आते वक़्त मैं ठिठुर रहा था. कैब ड्राइवर ने दो बार कहा मुझसे कि मैं खिड़की का शीशा चढ़ा लूँ.. लेकिन मैं जाने क्या सोच रहा था, मुझे सुबह की ठण्ड में यूँ ठिठुर कर बाहर कोहरे से लिपटे शहर को देखना अच्छा लग रहा था.
मन में मैं उन सब बातों को दोहरा रहा था जो मैं तुमसे कहना चाहता था. मैं जानता था कि तुम खुद बहुत समझदार हो, मुझे जरूरत ही नहीं तुम्हें कुछ भी समझाने की या हिदायतें देने की…लेकिन फिर भी मैं चाहता था कि ट्रेन खुलने से पहले कुछ पल मैं सिर्फ तुम्हारे साथ बिता सकूँ. पूरे रास्ते ये प्रार्थना करते आया था कि तुम्हारे साथ एकांत में थोड़ा वक़्त मिल सके मुझे. हालांकि ये मुमकिन नहीं था, ये जानता था मैं…लेकिन फिर भी मन में आशा थी कि शायद तुम्हारे साथ अकेले में कुछ पल मैं बिता सकूँ.
स्टेशन के प्लेटफोर्म नंबर एक पर तुम खड़ी थी. सफ़ेद स्वेटर पहने, भीड़ से बिलकुल अलग दिख रही थी तुम. बहुत दूर से ही मैं तुम्हें पहचान गया था. तुमने वही स्वेटर पहन रखा था जिसे मैंने तुम्हें गिफ्ट किया था.
थोड़ी देर एक कोने में खड़े मैं तुम्हें दूर से ही देखता रहा था. उस लम्बे सफ़ेद स्वेटर में तुम बिलकुल एक परी सी दिख रही थी. पिछले दिनों जो फ़िक्र और उदासी तुम्हारे चेहरे पर लगातार दिख रही थी, वो तुम्हारे चेहरे से गायब थी..तुम इस बात से खुश थी कि पिछले दिनों की परेशानियाँ तुम्हारे वापस जाने के वक़्त तक बहुत हद तक सुलझ गयीं थीं. तुम्हारा चेहरा खिला हुआ दिख रहा था. तुम्हारे चेहरे पर वही मासूमियत और चमक लौट आई थी जो तुम्हें बाकी लड़कियों से अलग करती हैं. तुम्हे यूँ खुश देख मैं खुश था. मुझे इस बात की राहत थी कि तुम अच्छे मन से वापस जा रही हो.
तुम प्लेटफोर्म पर इधर उधर देख रही थी. तुम मेरा इंतजार कर रही थी…और जैसे ही तुम्हारी नज़र मुझ तक आई, तुम्हारे चेहरे पर ४४० वाट का बल्ब जल गया था. तुमनें जिस तरह से मेरा बैग छीना था, और आते ही मुझसे पूछा “सैंडविच लाये हो न?”, मुझे तो एक पल लगा कि जैसे तुम मेरा नहीं, सैंडविच का इंतजार कर रही थी. तुमने मुझसे कुछ दिन पहले ही फरमाइश की थी कि मैं तुम्हारे लिए चीज़ सैंडविच बना कर लाऊं. तुम्हें मेरे हाथों के बने चीज़ सैंडविच बहुत पसंद आते थे. मुझे याद है जब तुम पहली बार मेरे घर आई थी और मैंने तुम्हारे लिए चीज़ सैंडविच और कॉफ़ी बनाई थी और तुम मेरी तारीफ़ करते नहीं थक रही थी. बाद में तो ये सुनते हुए मेरे कान पक गए थे “जब से तुम्हारे हाथों की सैंडविच खायी हूँ और कॉफ़ी पिया है मैंने, तब से किसी और के हाथों के सैंडविच और कॉफ़ी पसंद ही नहीं आते”. तुमने मेरे बैग से सैंडविच का वो पैकेट निकाल कर अपने पास रख लिया..अगले ही पल तुम्हें कुछ याद आया और तुमने झट से पूछा था मुझसे, “खुद के लिए भी एक दो सैंडविच रख लो, तुमने खुद के लिए तो रखा नहीं होगा एक भी…सभी मुझे दे दिए होगे?”
तुम सच में मेरे रग रग से वाकिफ थी.
तुमसे उस सुबह मैं बहुत सी बातें करना चाह रहा था, लेकिन आसपास लोगों की मौजूदगी में वो बातें तुमसे कह पाना नामुमकिन था. तुम भी तो उस सुबह शिद्दत से चाह रही थी कि हम दोनों को कुछ देर का वक़्त मिले, तुमने कितनी कोशिश की थी कि हम दोनों कुछ देर के लिए अकेले बैठ कर बात कर सके….तुमने बहुत एफोर्ट भी लगाया था. जो बहाने तुम बना रही थी, ताकि हम एकांत में कुछ पल बिता सके, वो कितने मासूम से थे.
तुम्हें यूँ एफोर्ट लगाते देख, यूँ बेचैन देख मुझे तुमपर बहुत प्यार आ रहा था. मैं समझ गया था कि तुम्हारे साथ अकेले बैठ कर बातें कर पाना मुमकिन नहीं, लेकिन तुम थोड़ी रेस्टलेस सी होने लगी थी. मैंने तुम्हारे कानों में कहा था “रहने दो, जो बातें कहनी है तुमसे, वो तुम्हारे शहर आकर मैं कह दूंगा. आऊंगा मैं तुमसे मिलने अगले हफ्ते”. ये सुनते ही तुम बिलकुल शांत हो गयी थी. जो रेस्ट्लस्नस थी चेहरे पर तुम्हारी उसके जगह एक मुस्कान तुम्हारे चेहरे पर उभर आई थी.
ट्रेन में कम्पार्टमेंट में भी जब सीट अरेंजमेंट हो रही थी, तुम मेरे बगल में आकर बैठ गयी थी. कुछ बुरे लोगों की बुरी नज़रें हम पर उठ आई थी. लेकिन तुमने इसकी ज़रा भी परवाह नहीं की. वहां कुछ लोग थे जो गलत नज़रों से देखते थे हमारे रिश्ते को…इतने खूबसूरत और पवित्र रिश्ते को समझने की शक्ति उनमें नहीं थी.. वे बेहद ही कमज़ोर और गिरे हुए मानसिकता के, निहायत ही बुरी सोच रखने वाले व्यक्ति थे. लेकिन तुमने उन लोगों की ज़रा भी परवाह नहीं की, ना मैंने ही उन लोगों के तरफ ध्यान दिया. उस वक़्त मेरे लिए यही काफी था कि तुम मेरे पास बैठी हो, मेरे साथ बैठी हो. उस वक़्त इसके अलावा मैं और कुछ भी सोचना नहीं चाह रहा था.
तुमने कुछ गैरजरूरी और बेतुकी बातें शुरू की थी, ऐसे सवाल जिनके जवाब तुम्हें मालूम थे. “क्या करोगे आज तुम?”, “यहाँ से सीधे घर जाओगे?”, “खाना खा लेना आज” वगैरह वगैरह. तुम्हारे चेहरे पर मेरी एक नज़र गयी थी….तुम उस वक़्त भयानक ई-मोड में आ गयी थी…और जब भी तुम यूँ इमोशनल हो जाती थी तब अकसर यूँ हीं बेतुके सवाल करती, इधर उधर की बातें करने लगती जिससे तुम्हारा ध्यान दूसरी तरफ जा सके. मैं भी तुमसे सीधे कुछ भी नहीं पूछ पा रहा था. तुम्हारे चेहरे की तरफ दोबारा देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई. मुझे डर था कहीं तुम खुद पर काबू नहीं रख पायी तो मैं क्या करूँगा? तुम टूट गयी और आंसूं बहने लगे तुम्हारे तो मैं कैसे संभाल पाऊंगा तुम्हें? तुम बातें कर रही थी लेकिन तुम्हारी आवाज़ में एक भींगा सा कम्पन मैं महसूस कर रहा था.
मैं सुन रहा था जो तुम कह नहीं रही थी. तुम्हारे दिल की धड़कनों को मैं सुन रहा था, तुम्हारे मन में जो बेचैनी थी उसे मैं महसूस कर पा रहा था. तुम शायद बहुत ही ज्यादा बेचैन होने लगी थी….तुमने अपना हाथ आगे बढाया था “अपना हाथ लाओ तो” – तुमने कहा था और मेरे से ये एक्स्पेक्ट किया था कि मैं तुम्हारी हथेलियों पर अपने हाथ रख दूंगा. लेकिन जाने क्या सोच कर मैंने तुम्हारे हाथों को झटक दिया… “ये हाथ फैला कर क्या मांग रही हो? मेरे पास चिल्लर नहीं हैं…” मैंने कहा था. और मेरे इस छोटे से मजाक पर तुम खिलखिलाकर हंस दी थी.
तुम्हें यूँ हँसता मुस्कुराता देख वे नज़रें जो हमारी तरफ उठ आयीं थीं, वो जल भुन गयी थीं. उन्हें यूँ जलता देख मुझे हलकी हंसी भी आई उस वक़्त. मैंने तुम्हारे कानों में कहा था “यूँ हीं मुस्कुराती रहो तुम, जलने वाले यूँ हीं तुम्हारी मुसकराहट देखकर जलते भुनते रहेंगे”. तुम्हारे पास मैं ज्यादा देर ठहर नहीं सका, तुम्हें यूँ हीं कुछ हिदायतें देकर मैं ट्रेन से उतर कर प्लेटफोर्म पर चला आया था. तुमसे ठीक से विदा भी नहीं ले पाया था मैं. मुझे जाने क्यों लग रहा था कि एक पल भी मैं और रुकता ट्रेन में तो शायद तुम और हम दोनों खुद को कंट्रोल नहीं कर पाते.
मैं ट्रेन से बाहर आ गया था. ट्रेन की खिड़की के शीशे से मैंने तुम्हें देखने की कोशिश की लेकिन तुम्हारी बेचैन नज़रों को मैं सह नहीं पा रहा था. मैं स्टेशन के दूसरे छोर पर चला आया. सामने उगते हुए सुरज को मैं देखने लगा. – “ये तुम्हारे जाने की घडी है – आठ दिसंबर का ये दिन मैं कभी नहीं भूलूंगा” . सुना था मैंने कहीं, किसी से….कि उगते सूरज को देखते हुए जो दुआ मांगो वो कभी खाली नहीं जाती. मैंने बहुत सी दुआएं मांगी तुम्हारे लिए उस सुबह.
ट्रेन ने सीटी दे दी थी….ट्रेन खुल रही थी, लेकिन मेरे में इतनी हिम्मत नहीं थी कि पीछे मुड़ कर मैं ट्रेन को जाता हुआ देख सकूँ. मैं कुछ देर तक उगते हुए सूरज को ही देखता रहा था…जब पीछे मुड़ा तो ट्रेन चली गयी थी. तुम चली गयी थी, वापस अपने शहर और मैं वहीँ रह गया था, अपने शहर में अकेला. मैं अचानक खाली सा हो गया था. तुम्हारी यादें, पिछले कुछ दिनों की बातें दिमाग में घूमने लगी थी. मैं वापस घर जाने के लिए मेट्रो स्टेशन की तरफ मुड़ा लेकिन मेरे कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे. इतवार की वो सुबह थी, और मैं जाने कितनी देर मेट्रो के फुटओवर ब्रिज पर खड़े होकर जाने क्या सोचता रहा था. तुम्हारी कई तस्वीरें आँखों के सामने घूम रही थीं, पिछले दिनों की बातें एक के बाद एक किसी फिल्म की तरह मन में चल रहीं थीं….
“तुम्हारा वो उदास चेहरा, जब तुम्हें देखा था जिस सुबह तुम शहर आई थी…..उसके एक दिन पहले की रात, जब पूरी रात तुम बेचैन रही थी , कॉफ़ी हाउस में बिताया वो वक़्त, इंडिया गेट की वो शाम, पुराने किले पर बीता वो दिन…एक के बाद सभी बातें मुझे याद आ रहीं थीं. मुझे वापस घर जाने की भी कोई जल्दी नहीं थी. मुझे याद नहीं लेकिन मैं बहुत देर तक उस फुटओवर ब्रिज के सीढ़ियों पर बैठा रहा था. मेरे आँखों के सामने बस तुम्हारा चेहरा था, और मन में वही नज़्म पढ़ रहा था जिसे पढ़ते एक शाम तुम्हारी आँखें नम हो गयीं थी….
जैसे झन्ना के चटख जाए किसी साज़ का इक तार
जैसे रेशम की किसी डोर से कट जाती है ऊँगली
ऐसे इक जर्ब-सी पड़ती है कहीं सीने के अन्दर
खींचकर तोड़नी पड़ जाती है जब तुझसे निगाहें
तेरे जाने की घड़ी, आह, बड़ी सख्त घड़ी है
– गुलज़ार
🙂 🙂
Mob se ye post padhna shuru krte samay socha tha…devnagree mei cmnt karenge jb computer chalayenge…par itna intezar krna mere vash ki baat nhi thee…:)
Usney apni hatheli faila k tmse jo pyar aur vishwas manga tha…jhatak ke mazak mei "chillar nhi h " kh k usey hasaa dene bhar se tmne usko yakeen dila diya hoga…tmhare pass uske liye bht pyar h…:)
Loved d post…as always…abhee to janey kitne din tak iska hangover rahna h…ye to hmko bhi nhi pata bhaii…
Love u for writing such lovelyyyy post…such sweet memories…
<3 <3 <3
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और शबरी के बेर मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
सुंदर !
इस पोस्ट का मुझे बेसब्री से इंतज़ार था बेटू!! बस दो चार दिनों से रोज़ अपडेट देखता रहता था कि तुमने लिखा कि नहीं.. आज जब देखा तो दिल को तसल्ली हुई!! "तेरे जाने की घड़ी, आह बड़ी सख़्त घड़ी है" इसीलिये चाहता था कि ये सख़्त घड़ी जितनी जल्दी गुज़र जाये उतना अच्छा है.
मगर चचा गुलज़ार के साथ साथ हमारे चचा राही मासूम की बातें भी चुभती हैं बेटू… याद कोई बादलओं की तरह हल्की-फुल्की चीज़ नहीं जो आहिस्ता से गुज़र जाये, यादें एक पूरा ज़माना होती हैं और ज़माना कभी हलका नहीं होता. ख़ैर वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा!
आज मुझे बहुत पुरानी कहानी दोहराये जाने का एहसास हो रहा है:
फ़ासले ऐसे भी होंगे, ये कभी सोचा न था,
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था!!
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पुनश्च: 440 वाट नहीं, 440 वोल्ट!
बहुत इमोशनल…. ! हसरत मोहानी की ग़ज़ल याद आ रही है:
तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दांतों मे वो उंगली दबाना याद है।
खेंच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़्अतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुंह छिपाना याद है।
वियोग के पलों का इतनी सजीवता से चित्रण किया है कि जो भी पढेगा उसे अपनी भी कोई घटना जरूर याद आएगी क्योंकि अनुभूतियाँ सबकी लगभग समान होतीं हैं । यही विशेषता है आपके लेखन की अभिषेक ।
वर्णन शैली बहुत अच्छी लगी ,लग रहा है सामने बैठे तुम ये सब बोल कर ही सुना रहे हो …. स्नेहाशीष 🙂
एकदम सही जा रहे हो बालक। हर कहानी पिछली कहानी से बेहतर है। लगा जैसे पाठक भी उसी प्लेटफॉर्म पर खड़े हैं। शायद सचमुच … (एकाध शब्द की वर्तनी ठीक कर लो, कहानी बहुत अच्छी है)
अद्भुत चित्रण….. मन की पीड़ा का अनकहा दर्द भी कह गए आप …..
इतना अंतरंग जैसे डायरी .
परिकल्पना के माध्यम से आपके ब्लॉग पर आना हुआ | बहुत अच्छा लिखते हैं आप | अब आना होता रहेगा