कभी कभी उसके शहर जाता हूँ तो
गुज़रता हूँ उस गली से
वो नीम तरीक सी गली
और उसी ने नुक्कड़ पे ऊँघता सा वो पुराना खम्बा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रौशनी की छड़ी को टेके
वो खम्बा अब भी वहीँ खड़ा है
फुतूर है ये मगर
मैं खम्बे के पास जा कर
नज़र बचा के मोहल्ले वालों की
पूछ लेता हूँ आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद भी यहाँ आई तो नहीं थी
वो आई थी क्या?
ये खेल आखिर किसलिए?
मन नहीं उबता?
कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम अपनी जिंदगी में?
खेल खेला है, खेलते रहे हैं..
नतीजा फिर वही, एक जैसा
क्या बाकी रहता है, हासिल क्या होता है?
जिंदगी भर एक दूसरे के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क है न?
आखिर किसलिए?
एक कहानी है…सुनाऊं?
कहानी दो प्रेमियों की है…दोनों जवान,खूबसूरत, अकलमंद
एक का दूसरे से बेपनाह प्यार
कसमों में बंधे हुए की जन्म-जन्मांतर में एक दूसरे का साथ निभाएंगे
मगर फिर अलग हो गए.
नौजवान फ़ौज में चला गया, गया तो लौट के नहीं आया..लापता हो गया..
लोगों ने कहा मर गया
मगर महबूबा अटल थी.
बोली- वो लौटेगा जरूर…लौटेगा
पुरे चालीस सालों तक साधना में रही, वफादारी से इंतज़ार किया
आखिर एक रोज महबूब का
संदेशा मिला -मैं आ गया हूँ, सिवान वाले मंदिर में मिलो
कहने लगी -देखा, मैंने कहा था न..
दौड़ कर गयी, मंदिर पहुंची पर प्रेमी नहीं दिखाई दिया..
एक आदमी बैठा था…एकदम बुढा, पोपला मुहँ, टाट गंजी, आँखों में मैल..
बोली- यहाँ तो कोई नहीं, जरूर किसी ने शरारत की है..मायूस होकर घर लौटी
वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया
कोई नहीं आया, चिड़िया का बच्चा तक नहीं..
हाँ..एक बुढिया आई थी, कमर से झुकी हुई, बाल उलझे हुए..आँख में मोतियाबंद
मंदिर में झाँक कर देखा..कुछ बुड्बडाई और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गयी…
निराश हो गया बेचारा.. बोला – उसने इंतज़ार नहीं किया
गृहस्थी रचा कर मुझे भूल गयी…
संदेशा भेजा था, फिर भी मिलने तक नहीं आई..
किसलिए..आखिर किसलिए ये खेल?मन नहीं उबता??
.
[गुलज़ार]
गहन अनुभूति….
ओह ….क्य कहूँ अभि …मुम्बई की बरिश और सुबह-सुबह गुलज़ार जी की दिलकश आवाज़…
आभार …इस पोस्ट के लिये …
एक पल को लगा आप वाकई गुलज़ार साहब की तरह लिखते है…………….
(वैसे उनसे कुछ कम भी नहीं हैं )
सांझा करने का शुक्रिया अभि जी…
बहुत सुन्दर पोस्ट
अनु
beautiful…
thanks for sharing this post
😉
हर बार एक नयापन झलकता है, इन रचनाओं में।
Kaatil !
क्या वो आई थी यहां …
एक शब् उनके नाम उनके शहर में … क्या लिखते हो यार …. बस इतना कहूँगा …. "…….." …. कुछ न कहूँगा ….
ये खेल न हो तो जिन्दगी बेमानी सी लगती है..बहुत अच्छी लगी..
वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया
कोई नहीं आया, चिड़िया का बच्चा तक नहीं..
हाँ..एक बुढिया आई थी, कमर से झुकी हुई, बाल उलझे हुए..आँख में मोतियाबंद
मंदिर में झाँक कर देखा..कुछ बुड्बडाई और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गयी…
निराश हो गया बेचारा.. बोला – उसने इंतज़ार नहीं किया
अभी! मेरा विचार यानी टिप्पणी है कि……
धूल सने रूमाल में
गंध तो वही है
पर
इस रंग का रूमाल?
यह किसका है..
शायद वक्त का है
पुरकश आवाज़ भी जो ग़ालिब के एक कैसेट के इंट्रो की याद दिला गयी ..
आवाज तुम्हारी है बरखुरदार तो इसे बेंचने की हिकमत करो -जिन्दगी मौज में कट जायेगी!
अरे अरविन्द जी, ये तो गुलज़ार साहब की आवाज़ है…उन्ही की नज़्म भी 🙂
बहुत दिनो के बाद गुलजार को पढ़ा..सुना।..धन्यवाद अभी।